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Wednesday 8 June 2016

जरगो बांध – चुनार

जरगो बांध – चुनार

जरगो बांध जो चुनार से लगभग 18 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है chuna से इमलिया बाज़ार होते हुए इस डैम पर पंहुचा जा सकता है. यह बांध जरगो नामक नदी पर बना हुआ है। दूसरी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत इसे बनवाया गया था। इसका असल मकसद सिंचाई है, जिसे यह बखूबी पूरा करता है। कई छोटी छोटी नहरें निकाली गई हैं, जिससे आसपास के खेतों की सिंचाई की जरुरतें पूरी होती हैं। चन्द्रेश ने बताया कि यह बांध पूरी तरह मिट्टी का बना हुआ है।
सक्तेश गढ़ दुर्ग

सक्तेश गढ़ दुर्ग

सक्तेश गढ़ चुनार तहसील में ही चुनार से लगभग 10 मील की दूरी पर दक्षिण में सक्तेश गढ़ का छोटा सा दुर्ग हैं. पहाड़ियों और जंगलों में ढके इस इलाके में कोलों और भरो का निवास था. ये कोल और भर ही इस इलाके के मालिक थे और कोई उनसे कर नहीं ले पता था, मध्य काल में जब अकबर के काल में भूमि व्यवस्था हुयी तो इनके ऊपर कब्ज़ा करने की पहल हुयी.

परिणाम स्वरूप पटेल और गहरवाल ज़मींदार बाहर से आये और जगह जगह अपने छोटे छोटे गढ़ बनाकर उन लोगों ने आदिवासियों को नियंत्रित करने की कोशिश की चुनार क्षेत्र के कोलना,कोलउन, भरमार, भरहटा. भरपुरा आदि गाँव इन जातियों के निवास के आज भी साक्षी हैं. इन्हीं आदिवासियों के नियंत्रण और उनसे कर वसूलने के लिए मुग़ल सम्राट अकबर के काल में कंतित स्टेट के राजा ने सम्राट की आज्ञा से यहाँ जारागो के किनारे एक गढ़ी बनवाई जो उस समय के राजा शक्ति सिंह के नाम पर सक्तेश गढ़ कहलाता है.
यह गढ़ जरगो नदी के किनारे स्थित हैं. जिसके चारो कोनों पर मीनारे हैं और काफी विस्तृत परकोटे से घिरी हुयी इमारत हैं. इसका एक कमरा शीशमहल कहा जाता हैं. क्युकी इसकी सजावट में शीशे का प्रयोग किया गया था, इस कारण यह काफी समृद्ध और वैभवशाली अतिथि गृह लगता था.
किले के पिछले आँगन से नदी तक जाने के लिए एक भूमिगत मार्ग है जो शायद महिलाओं के नदी स्नान के लिए बनवाया गया था. किले के चार ओर खाई के भी चिन्ह मिलते हैं. किसी समय यह दुर्ग घने जंगलों के बीच था. जहा शिकार की सुविधा तो थी ही और एक सुरक्षित स्थान भी था. जहा रहकर शासन के प्रतनिधि साम्राज्य की सत्ता का एहसास लोगो को करते थे और उनसे कर वसूलते थे.
घने जंगलों के बीच स्थित रहने पर भी इनकी संस्कृति वन्य संस्कृति ण होकर मुगलकालीन सम्राटों की संस्कृति से प्रभावित थी. इस लिए यहाँ की संस्कृति निश्चित रूप से वन्य संस्कृति के बीच राज्य संस्कृति होकर एक द्वीप की तरह हो गयी थी . इस समय दुर्ग में स्वामी अड़गडानन्द स्वामी का आश्रम है

माँ कंकाल काली ( अकोढी )

माँ कंकाल काली ( अकोढी )



विन्ध्याचल जिगना में स्थित है माँ का यह दुर्लभ कंकाल काली का यह मंदिर जो कर्णावती नदी के संगम किनारे स्थित अक्रोधपुर ( अकोढी ) में पड़ता है यहाँ पर भी साधक अपनी सिद्धिया प्राप्त करने के लिए अलग अलग जिले से आते है और अपनी तांत्रिक शक्तियों को सिद्ध करने के लिए कई रात साधना करते है. माँ काली का उल्लेख दुर्गा सप्तशती के सतावे अध्याय में मिलता है.
यह माँ की दुर्लभ मूर्ति खुदाई के दौरान मिली थी



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Tuesday 7 June 2016

काली खोह

काली खोह

महाशक्ति पीठ ”माँ विंध्यवासिनी धाम ”में त्रिकोण परिक्रमा के अंतर्गत अवस्थित “महाशक्ति माँ काली ”
राक्षस रक्तबीज के संहार करते समय माँ काली विकराल रूप धारण कर ली थी ,
उनको शांत करने हेतु शिव जी युद्ध भूमि में उनके सामने लेट गये , जब माँ काली का चरण शिव जी पर पड़ा , तो लज्जावश पहाडियों के खोह में छुप गयी ,इस वजह से ये स्थान काली खोह के नाम से प्रसिद्ध हुवा !
पहाड़ों के बीच बसा माँ महाकाली (कलि खोह)



माँ विंध्यवासिनी

माँ विंध्यवासिनी

विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं।
कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिध्दि प्राप्त होती है। विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं।
ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिध्दि प्राप्त होती है।
इस कारण यह क्षेत्र सिध्द पीठ केरूप में विख्यात है। आदि शक्ति की शाश्वत लीला भूमि मां विंध्यवासिनी के धाम में पूरे वर्ष दर्शनाथयों का आना-जाना लगा रहता है।
चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यहां देश के कोने-कोने से लोगों का का समूह जुटता है।
ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।
इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है, जिसमें सृष्टि के प्रारंभ काल की कुछ इस प्रकार से चर्चा है- सृजन की आरंभिक अवस्था में संपूर्ण रूप से सर्वत्र जल ही विमान था। शेषमयी नारायण निद्रा में लीन थे। भगवान के नाभि कमल पर वृध्द प्रजापति आत्मचिंतन में मग्न थे। तभी विष्णु के कर्ण रंध्र से दो अतिबली असुरों का प्रादुर्भाव हुआ। ये ब्रह्मा को देखकर उनका वध करने के लिए दौड़े। ब्रह्मा को अपना अनिष्ट निकट 1दिखाई देने लगा। असुरों से लड़ना रजोगुणी ब्रह्मा के लिए संभव नहीं था। यह कार्य श्री विष्णु ही कर सकते थे, जो निद्रा के वशीभूत थे। ऐसे में ब्रह्मा को भगवती महामाया की स्तुति करनी पड़ी, तब जाकर उनके ऊपर आया संकट दूर हो सका।

मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश: मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित श्री दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर माँ भगवती ने कहा है-
नन्दागोपग्रिहेजातायशोदागर्भसंभवा, ततस्तौ नाशयिश्यामि विंध्याचलनिवासिनी।

वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवेंयुग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्यउत्पन्न होंगे। तब मैं नन्द गोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी। लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
विन्ध्यस्थाम विन्ध्यनिलयाम विंध्यपर्वतवासिनीम, योगिनीम योगजननीम चंदिकाम प्रणमामि अहम् ।
मां के पताका (ध्वज) का महत्व
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी देवी के पताका में ही होता है।









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पेहती की दरी

पेहती की दरी

यह वाटर फाल जो की मीरजापुर से 47 किमी की दूरी पर चुनार से लगभग 7 किमी पहले दक्षिण दिशा की ओर हैं. जिसे हम लहौरा गाँव के नाम से जानते है उसी गाँव से जंगल के रास्ते तकरीबन 3 किमी आपको पैदल चलना होगा क्योकि यहाँ से कोई एसा रास्ता नहीं जहा किसी साधन के द्वारा पंहुचा जा सके, यह फाल जंगलो के बीच में स्थित है. यहाँ का नज़ारा देखते ही आप की सारी थकान पलभर में दूर हो जाती है. यहाँ का मनमोहक नज़ारा चिडियों की चू चू और झरने की आवाज़ मनो आप को एक अलग ही सुख प्रदान करती है